स्कूल की किताबों में
बचपन की हिदायत में
छूट में, किफायत में
सीखा है एक दायरा ...
मिटटी के इन बंगलो में
शहर के इन जंगलों में
हर घंटे की आहट में
रसोई की खनखनाहट में
रोज़मर्रा की झनझनाहट में
देखा है एक दायरा ...
जिंदगी की होड़ में
ऊँचे नीचे मोर पर
इस चार दिवारी में
फूलों की इस क्यारी में
सींचा है एक दायरा ...
क्यों बुनते रहते हैं हम इस दायरे का जाल?
उम्मीद की उन किरणों में
प्रभु के पावन चरणों में
लहराती इन हवाओं में
मन की गहरी गुफाओं में
बच्चों की किलकारियों में
सुलगती चिनगारियों में
खुले आस्मान के चमकते सितारों में
गहरे समंदर के असीमित किनारों में
क्यों नहीं दिखता कोई दायरा ?
इस दायरे से बाहर क्यों नहीं निकलते हम?
क्यों नए आस्मान को चूमने से डगमगाते हैं ये कदम?
दाल पर बैठे पंछी को उड़ने से क्यों डर है?
६ इंच का घोंसला, क्या येही उसका घर है?
यह कसा हुआ दायरा सिर्फ़ उसका भ्रम है
तोड़ इस दायरे को उड़ जा, येही तेरा कर्म है ॥
1 comment:
Kyonki in daayare ne hi rakhaya tha pahla kadam
kyonki in daayaron ne hi bachaya tha andheron se
kyonki in daayaron ne hi sikhaya tha jeene ka dhang
kyonki yeh daayare hi dikhate hai ab sapne... daayare se bahar chalne ke.
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