Sunday, May 13, 2012

ख़ामोशी बोली लफ़्ज़ों से 
क्यों खुद पर यूँ इतराते हो,
जो मैं नहीं कह कर कह सकती हूँ 
वो तुम  कह कर भी नहीं कह पाते हो ...

कभी लुभाते हो मीठे बोलों से 
कभी चुभाते हो शब्दों के तीर 
मौका देख कर बदलते हो फितरत 
दिखाते क्यों नहीं दिल  की तस्वीर ?

जज्बातों की गहरायी बयां करने के लिए 
यकायक  कम  क्यों पड़  जाते हो?
ख़ामोशी  बोली लफ़्ज़ों से 
क्यों खुद पर यूँ इतराते हो?

बोले लफ्ज़ ख़ामोशी से 
हम  दोनों बस  एक  साधन  हैं 
तुम  जुडी हुई हो दिल  से तो 
हम  दिमाग  की उपजन  हैं 

माना कि हम  तुम्हें तोड़ते हैं 
देते भी तो हैं हम  ही तुमको ज़ुबान 
बोलती हो तुम आँखों से पर 
आँखें पढने का है समय कहाँ ?

रफ़्तार भरी इस  दुनिया में 
हम दोनों ही हैं सिमट रहे 
लफ़्ज़ों के साथ  भी है कश्मकश 
तो ख़ामोशी को कोई कैसे पढ़े ?

सुन  कर शब्दों का मायाजाल 
ख़ामोशी भी अब मुस्कुरायी 
लफ्ज़ होते हैं दिल बहलाने में माहिर 
चुप रहने में ही है भलाई !!


   

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